कक्षा 10 इतिहास अध्याय: 4 औद्योगीकरण का युग नोट्स । Class 10 History Chapter 4 Notes in Hindi Pdf Download

कक्षा 10 के अध्याय “औद्योगीकरण का युग’ में आपका स्वागत है। इस पोस्ट में कक्षा 10 इतिहास अध्याय: 4 औद्योगीकरण का युग नोट्स (Class 10 History Chapter 4 Notes) दिए गए हैं जो कक्षा 10 के सभी छात्रों के एग्जाम के लिए काफी महत्वपूर्ण है यह नोट्स कक्षा 10 के सभी छात्रों के एग्जाम के लिए रामबाण साबित होंगे। 

कक्षा 10 इतिहास अध्याय: 4 औद्योगीकरण का युग नोट्स ।Class 10 History Chapter 4 Notes in Hindi Pdf Download

कक्षा 10 इतिहास अध्याय: 4 औद्योगीकरण का युग नोट्स । Class 10 History Chapter 4 Notes

औद्योगीकरण का युग

औद्योगिकरण युग एक युग था जब हम लोगों ने हस्तनिर्मित वस्तुओं को बनाने के लिए कम श्रम की आवश्यकता महसूस की। इसके दौरान, हमने फैक्ट्री, मशीन और तकनीक का विकास किया। यह युग 1760 से 1840 तक चला और इसे औद्योगिकरण युग कहा जाता है। इस युग में, खेती करने वाले समाज से औद्योगिक समाज में बदल गया। यह युग मानव जीवन के लिए खेल के परिवर्तन के नियमों के समान था।

पूर्व औद्योगीकरण

यूरोप में, उद्योगीकरण के पहले के काल को ‘पूर्व औद्योगीकरण’ का काल कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह उस समय की अवधि है जब यूरोप में सबसे पहले कारखाने स्थापित होने से पहले का समय होता है। इस अवधि में, गाँवों में लोग सामान बनाते थे और उन्हें शहर के व्यापारियों द्वारा खरीदा जाता था।

आदि – औद्योगीकरण

वास्तव में, इंग्लैंड और यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से पहले ही अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर उद्योगिक उत्पादन शुरू हो गया था। यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता था। बहुत सारे इतिहासकार इस चरण को “आरंभिक उद्योगीकरण” या “प्राथमिक उद्योगीकरण” के नाम से जानते हैं।

व्यापारियों का गाँवों पर ध्यान देने का कारण

शहरों में ट्रेड और क्राफ्ट गिल्ड बहुत महत्वपूर्ण संगठन होते थे। ये संगठन प्रतिस्पर्धा और मूल्यों पर अपना नियंत्रण रखकर बड़ी शक्ति हासिल करते थे। इनके कारण नए लोगों को बाजार में काम शुरू करने से रोका जाता था। इसलिए किसी व्यापारी के लिए नए व्यवसाय की शुरुआत करना बहुत मुश्किल होता था। इसके कारण वे गांवों की ओर जाने को पसंद करते थे।

स्टेपलर

• स्टेपलर वह व्यक्ति होता है जो ऊन को रेशों के हिसाब से बांधता या छोड़ता है। इसका मतलब होता है कि वह ऊन की गठरी या रेशों को अपनी जगह पर स्थापित करता है या उन्हें हटा देता है।

फुलट

• फुलट वह व्यक्ति होता है जो कपड़ों को समेटता है यानी चुनवटों के सहारे उन्हें सांझा करता है। इसका मतलब होता है कि वह कपड़े को बांधकर या संभालकर उन्हें सुथरता से रखता है।

कार्डिंग

कार्डिंग एक प्रक्रिया है जिसमें कपास या ऊन को कताई के लिए तैयार किया जाता है। इस प्रक्रिया में कपास के टुकड़ों को साफ किया जाता है और उन्हें ऊन के धागों में रूपांतरित किया जाता है।

कारखानों की शुरुआत

 यहीं से शुरू होकर, इंगलैंड में 1730 के दशक में कारखानों का निर्माण प्रारंभ हुआ। अठारहवीं सदी के आखिर तक, इंगलैंड के विभिन्न क्षेत्रों में कारखाने देखे जाने लगे।

इस नए युग की पहली पहचान कपास थी। उन्नीसवीं सदी के अंत तक, कपास की उत्पादन में विशेष वृद्धि हुई।

1760 में, ब्रिटेन में 5 मिलियन पाउंड कपास का आयात होता था।

1787 तक, यह मात्रा 22 मिलियन पाउंड तक बढ़ गई थी।

कारखानों से लाभ

कारखानों के खुलने से हमें कई फायदे हुए हैं।

  • श्रमिकों की कार्यकुशलता में सुधार हुआ है। अब उन्हें नई मशीनों का उपयोग करके और बेहतर तरीके से काम करने का मौका मिलता है।
  • कारखानों में अब नई मशीनों की मदद से प्रति श्रमिक से अधिक मात्रा में और बेहतर उत्पाद बनते हैं।
  • औद्योगिकरण की शुरुआत मुख्य रूप से सूती कपड़ा उद्योग में हुई है।
  • कारखानों में अब श्रमिकों की निगरानी और उनसे काम लेना अधिक आसान हो गया है।

औद्योगिक परिवर्तन की रफ्तार

औद्योगीकरण का मतलब सिर्फ़ फैक्ट्री उद्योग का विकास नहीं था। कपास और सूती वस्त्र उद्योग और लोहा और स्टील उद्योग में बदलाव तेजी से हुए और ये ब्रिटेन के सबसे उभरते उद्योग थे।

• औद्योगीकरण के पहले दौर में (1840 के दशक तक) सूती कपड़ा उद्योग मुख्य था।

• रेलवे के प्रसार के बाद लोहे और इस्पात उद्योग में तेजी से वृद्धि हुई। रेल का प्रसार इंगलैंड में 1840 के दशक में हुआ और इसके बाद औद्योगिक क्षेत्रों में यह 1860 के दशक में फैल गया। 

1873 तक, ब्रिटेन से लोहे और इस्पात के निर्यात की कीमत 77 मिलियन पाउंड हो गई। यह सूती कपड़े के निर्यात का दोगुना था।

• लेकिन औद्योगीकरण का रोजगार पर खास असर नहीं पड़ा। उन्नीसवीं सदी के अंत तक, पूरे कामगारों का 20% से कम ही तकनीकी रूप से उन्नत औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार पाया जाता था। इससे यह पता चलता है कि नए उद्योग पारंपरिक उद्योगों को पूरी आदेश नहीं कर पाए थे।

नए उद्योगपति परंपरागत उद्योगों की जगह क्यों नहीं ले सके?

  • औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की संख्या काफी कम थी।
  • टेक्नोलॉजी के बदलाव की गति धीमी थी।
  • कपड़ा उद्योग एक गतिशील उद्योग था।
  • टेक्नोलॉजी काफी महंगी थी।
  • उत्पादन का बड़ा हिस्सा कारखानों की बजाय घरेलू उद्योगों से होता था।

हाथ का श्रम और वाष्प शक्ति

उस समय में, श्रमिकों की कमी नहीं होती थी। इसलिए, श्रमिकों को बहुत अधिक मेहनत करने या परेशानी का सामना करने की कोई समस्या नहीं थी। इसलिए, मशीनों में पूँजी निवेश करने की बजाय, श्रमिकों से काम लेना बेहतर माना जाता था।

मशीनों से बनी चीजें सभी एक जैसी होती थीं। वे हाथ से बनी चीजों की गुणवत्ता और सुंदरता को मुकाबला नहीं कर सकती थीं। उच्च वर्ग के लोग हाथ से बनी हुई चीजों को अधिक पसंद करते थे।

लेकिन 19वीं सदी के अमेरिका में स्थिति कुछ अलग थी। वहाँ पर श्रमिकों की कमी होने के कारण, मशीनीकरण ही एकमात्र उपाय था। ये भी पढ़ें: कक्षा 10 भूगोल अध्याय 5: खनिज तथा ऊर्जा संसाधन नोट्स । Class 10 Geography Chapter Chapter 5 Notes in Hindi Pdf

19 वीं शताब्दी में यूरोप के उद्योगपति मशीनों की अपेक्षा हाथ के श्रम को अधिक पसंद क्यों करते थे?

 • ब्रिटेन में उद्योगपतियों को मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी।

उस समय ब्रिटेन में उद्योगपतियों को मानव श्रम की कमी महसूस नहीं होती थी। अर्थात उनके पास काम करने वाले श्रमिकों की कमी नहीं थी।

• वे मशीन इसलिए लगाना नहीं चाहते थे क्योंकि मशीनों के लिए अधिक पूँजी निवेश करनी पड़ती थी।

यहां यह बात थी कि वे उद्योगपतियों को मशीनों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि उन्हें अधिक पूंजी निवेश करनी पड़ती थी ताकि मशीनों को स्थापित किया जा सके।

कुछ मौसमी उद्योगों के लिए वे उद्योगों में श्रमिकों द्वारा हाथ से काम करवाना अच्छा समझते थे।

कुछ खास उद्योगों में, जैसे मौसमी उद्योगों में, वे उद्योगपतियों को लगता था कि हाथ से काम करवाना अधिक उपयुक्त होता था।

बाजार में अक्सर बारीक डिजाइन और खास आकारों वाली चीजों की माँग रहती थी ज

मजदूरों की जिंदगी

मजदूरों का जीवन बहुत दुखद था। काम की बहुत कमी के कारण लोगों को रोजगार की बहुत अधिक तकलीफ होती थी। नौकरी पाने के लिए लोग अक्सर अपने दोस्तों, परिवार के सदस्यों और अपने जान-पहचान वालों पर निर्भर करते थे। बहुत सारे उद्योगों में, मौसमी काम के कारण कामगारों को बीच-बीच में बहुत समय तक बेरोज़गार बैठना पड़ता था। मजदूरों की आय का सच्चा महत्व बहुत कम था, जिसके कारण गरीबी बढ़ जाती थी।

स्पिनिंग जैनी

एक सूत काटने की मशीन जो जेम्स हर वर्स द्वारा 1764 में बनाई गई थी ।

स्पिनिंग जेनी मशीन का विरोध

उन्नीसवीं सदी के मध्य तक, शहरों में आबादी के लगभग 10% लोग अत्यधिक गरीब होते थे, भले ही वह एक अच्छा समय था। लेकिन जब आर्थिक मंदी आती थी, तो बेरोजगारी बढ़ जाती थी और लोगों का 35 से 75% तक रोजगार के अवसर खत्म हो जाते थे।

बेरोजगारी की वजह से, मजदूरों को नई प्रौद्योगिकी से समस्या होने लगी। जब स्पिनिंग जेनी मशीन का उपयोग शुरू हुआ, तो वे मशीनों के खिलाफ आंदोलन करने लगे।

1840 के दशक के बाद, रोजगार के अवसर बढ़ गए क्योंकि सड़कें चौड़ी हो गईं, नए रेलवे स्टेशन बने और रेलवे लाइनें विस्तार पाईं। ये भी पढ़ें: कक्षा 10 इतिहास अध्याय 2: भारत में राष्ट्रवाद नोट्स । Class 10 History Chapter 2 Notes In Hindi PDF

उपनिवेशो में औद्योगीकरण

आइए अब भारत पर नजर डाले और देखे की उपनिवेश में औद्योगीकरण कैसे होता है।

भारतीय कपड़े का युग

मशीन उद्योग से पहले का युग :-

अंतरराष्ट्रीय कपड़ा बाजार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का बहुत चलन था। 

उच्च किस्म के कपड़े भारत से आर्मीनिया और फारसी व्यापारियों के द्वारा पंजाब से अफगानिस्तान, पूर्वी फारस और मध्य एशिया ले जाए जाते थे।

सूरत, हुगली और ममूली पटनम उद्योग के प्रमुख बंदरगाह थे।

• इस व्यापार नेटवर्क में विभिन्न प्रकार के भारतीय व्यापारियों और बैंकरों की भी भूमिका थी। 

+ दो प्रकार के व्यापारी थे – आपूर्ति सौदागर और निर्यात सौदागर।

• बंदरगाहों पर बड़े जहाजों के मालिक और निर्यात व्यापारी दलालों के साथ मोल भाव पर व्यापार किया जाता था और आपूर्ति सौदागर माल खरीद लेते थे।

मशीन उद्योग के बाद का युग (1780 के बाद)

1750 तक, भारतीय व्यापारियों का नेटवर्क कमजोर होने लगा और यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ने लगी। सूरत और हुगली जैसे पुराने बंदरगाहों को कमजोरी महसूस हुई। इसके विपरीत, बंबई (मुंबई) और कलकत्ता ने एक नये बंदरगाह के रूप में उभरना शुरू किया। व्यापार अब यूरोपीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित होता था और उनके जहाजों के माध्यम से होता था। शुरुआत में, भारत के कपड़े व्यापार में कोई कमी नहीं आई। 18वीं सदी में, यूरोप में भी भारतीय कपड़ों की भारी मांग हुई।

यूरोपीय कंपनियों के आने से बुनकरों का क्या हुआ?

ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा सत्ता स्थापित करने से पहले बुनकर बेहतर स्थिति में थे क्योंकि उनके पास बहुत सारे ग्राहक थे जो उनके उत्पादों को खरीदते थे और वे सबसे अधिक कीमत देने वाले को अपना सामान बेच सकते थे।

ईस्ट इंडिया कंपनी आने के बाद बुनकरों की स्थिति

1760 के बाद भारत में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजनीतिक सत्ता स्थापित की और बुनकरों की स्थिति में बदलाव हुआ।

• ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना पूर्ण नियंत्रण भारतीय व्यापार पर प्राप्त कर लिया।

• इसके बाद से कपड़ों के व्यापार में, अब बुनकरों के ऊपर सीधा नियंत्रण रहता था, जिसके कारण सक्रिय व्यापारियों और दलालों का अस्तित्व समाप्त हो गया।

+ बुनकरों को अन्य खरीदारों के साथ कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी गई।

+ इसके लिए, एक कर्मचारी जिसे गुमाश्ता कहा जाता था, नियुक्त किया गया, जिसका काम बुनकरों की निगरानी करना था। वह वेतन भी प्राप्त करता था।

+ बुनकरों और गुमाश्ता के बीच अक्सर टकराव होता था।

+ बुनकरों को कंपनी से मिलने का अवसर बहुत कम होता था।

भारत में मैनचेस्टर का आना

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही भारत से कपड़ों के निर्यात में कमी आने लगी। 1811-12 में भारत से होने वाले निर्यात में सूती कपड़े की हिस्सेदारी 33% थी, लेकिन 1850-51 तक यह हिस्सा मात्र 3% रह गया।

इसका कारण था ब्रिटेन के निर्माताओं के दबाव, जिसके कारण सरकार ने ब्रिटेन में इंपोर्ट ड्यूटी लगा दी, ताकि इंगलैंड में सिर्फ वहाँ बनने वाली वस्तुएं ही बिकें। इसके फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कम्पनी को भी दबाव डाला गया कि वह ब्रिटेन में बनी चीजों को भारत के बाजारों में बेचे।

अठारहवीं सदी के अंत तक भारत में सूती कपड़ों का आयात न के बराबर था। लेकिन 1850 आते-आते कुल आयात में 31% हिस्सा सूती कपड़े का था। 1870 के दशक तक यह हिस्सेदारी बढ़कर 50% से ऊपर चली गई।

मैनचेस्टर के आगमन से भारतीय बुनकरों के सामने आई समस्याएं

19 वीं सदी के आते आते बुनकरों के सामने नई समस्याओं का जन्म हुआ।

भारतीय बुनकरों की समस्याएँ

नियति बाजार का ढह जाना, यानी कि व्यापार का बंद हो जाना।

स्थानीय बाजार का संकुचित हो जाना, जिसका अर्थ है कि स्थानिक व्यापार कम हो जाना।

अच्छी कपास का ना मिल पाना, जिसका अर्थ है कि बेहतर कपास नहीं मिल रही है।

ऊँची कीमत पर कपास खरीदने के लिए मजबूर होना, जिसका अर्थ है कि महंगी कीमत पर कपास खरीदने के लिए लोगों को मजबूर होना पड़ रहा है।

19 वीं सदी के अंत तक भारत में फैक्ट्रियों द्वारा उत्पादन शुरू तथा भारतीय बाजार में मशीनी उत्पाद की बाढ़ आई। अर्थात, 19वीं सदी के अंत तक भारत में उद्योगों ने उत्पादन शुरू किया और भारतीय बाजार में मशीनी उत्पादों की मात्रा बढ़ गई।

फैक्ट्रियों का आना

भारत में कारख़ानों की शुरुआत में कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। 1854 में बम्बई में पहला सूती कपड़ा मिल बनी और उसका उत्पादन दो सालों बाद शुरू हो गया। इसके बाद, 1862 तक चार और मिल खुल गईं। उसी समय बंगाल में जूट मिल भी शुरू हो गई।

कानपुर में 1860 के दशक में एल्गिन मिल की शुरुआत हुई। अहमदाबाद में भी उसी समय में पहली सूती मिल खुल गई।

मद्रास में 1874 में पहली सूती मिल का उत्पादन शुरू हो गया था।

प्रारंभिक उद्यमी

ये सभी लोग चीन के साथ व्यापार में शामिल थे। उदाहरण के लिए बंगाल में द्वारकानाथ टैगोर ने 6 संयुक्त उद्यम कंपनियाँ शुरू की। बम्बई में डिनशॉ पेटिट और जे. एन टाटा भी इसमें शामिल थे। सेठ हुकुमचंद ने कलकत्ता में पहली जूट मिल लगाई। जी. डी बिड़ला ने भी यही काम किया। मद्रास के कुछ व्यापारियों ने वर्मा के माध्यम से मध्य पूर्व और पूर्वी अफ्रीका के साथ व्यापार किया। कुछ वाणिज्यिक समूह भारत के अंदर ही व्यापार करते थे। इसका मतलब था कि भारत के व्यापारियों को बढ़ने के लिए अवसर बहुत ही कम थे, क्योंकि उस समय अंग्रेजों का दायित्व था भारतीय व्यापार को दबाना। पहले विश्व युद्ध तक भारतीय उद्योग का अधिकांश हिस्सा यूरोपीय एजेंसियों के अधीन था।

मज़दूर कहाँ से आए

अधिकांशतः, उन मजदूरों का मुख्य स्रोत गाँवों में रोजगार नहीं मिलना था, जो अपने नजदीकी जिलों से यहाँ आते थे। उदाहरण के तौर पर, बंबई के सूती कपड़ा मिल में काम करने वाले मजदूर ज्यादातर रत्नागिरी जिले से ही आते थे।

19 वीं सदी में भारतीय मजदूरों की दशा

1901 में भारतीय फैक्ट्रियों में 5,84,000 मजदूर काम करते थे।

1946 में इस संख्या ने बढ़कर 24,36,000 हो गई।

अधिकांश मजदूरों को अस्थायी तौर पर रखा जाता था।

जब फसलों को काटने का समय आता था, वे गाँवों में जाकर रुकते थे।

नौकरी पाना बहुत मुश्किल था।

जॉबर मजदूरों के जीवन पर पूरी तरह से नियंत्रण था।

जॉबर कौन थे?

उद्योगपतियों ने मजदूरों की भर्ती के लिए एक पुराना कर्मचारी रखा था।

• यह कर्मचारी गांव से लोगों को लाता था।

उन्होंने काम के लिए विश्वास दिया और उन्हें शहर में रहने में मदद भी की।

• बाद में यह कर्मचारी मदद के बदले पैसे और तोहफे मांगने लगा।

औद्योगिक विकास का अनूठापन

भारत में यूरोपीय प्रबंधकीय एजेंसियों द्वारा औद्योगिक उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किये गए कुछ विशेष उत्पादों में दिलचस्पी थी, खासकर उन चीजों में जो भारत से निर्यात की जा सकती थीं, जैसे कि चाय, कॉफी, नील, जूट और खनिज उत्पाद।

भारतीय व्यवसायियों ने ऐसे उद्योगों की स्थापना की जो मेनचेस्टर उत्पादों से प्रतिस्पर्धा नहीं करते थे। उदाहरण के तौर पर, कपड़े की बजाय धागे का उत्पादन किया गया, जो आयात नहीं किया जाता था।

19वीं सदी के अंत में, भारत में औद्योगिकरण का धर्रा बदल गया। स्वदेशी आंदोलन लोगों को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए प्रेरित किया। इसके परिणामस्वरूप, भारत में कपड़े का उत्पादन शुरू हुआ। बाद में, चीन से धागे की आयात कम हो गई और धागे के स्थान पर कपड़ा उत्पादन शुरू हुआ। 1900 से 1912 के बीच मूती कपड़े का उत्पादन दुगुना हो गया।

प्रथम विश्व युद्ध ने भारत में औदयोगिक उत्पादन को तेजी से बढ़ाया। नई फैक्ट्रियों की स्थापना हुई, क्योंकि ब्रिटिश मिलिटरी युद्ध के लिए उत्पादन में व्यस्त थी। इसके फलस्वरूप औद्योगिकरण की दिशा में भारत में तेजी आई और नई उद्योगों की विकास की संभावनाएं उभरी।

लघु उद्योगों की बहुतायत

वृद्धि के बावजूद, अर्थव्यवस्था में बड़े उद्योगों का हिस्सा कम था। लगभग 67% बड़े उद्योग बंगाल और बम्बई में स्थित थे।

• देश के अन्य इलाकों में छोटे उद्योग बहुत प्रमुख थे। कामगारों का केवल एक छोटा हिस्सा ही रजिस्टर्ड कंपनियों में काम करता था। 1911 में यह हिस्सा 5% था और 1931 में यह 10% बीसवीं सदी में बनने वाले उत्पाद में बढ़ाया गया। हथकरघा उद्योग में, लोगों ने नवीनतम तकनीक का उपयोग किया। बुनकर अपने कारख़ानों में फ्लाई शटल का इस्तेमाल करने लगे।

1941 तक, भारत में 35% से अधिक हथकरघों में फ्लाई शटल स्थापित हो गया था। त्रावणकोर, मद्रास, मैसूर, कोचिन और बंगाल जैसे प्रमुख क्षेत्रों में 70 से 80% हथकरघों में फ्लाई शटल संस्थापित किए गए थे। 

• इसके अलावा, और भी कई नई सुधार हुए जिससे हथकरघा उद्योग में उत्पादन क्षमता में वृद्धि हुई।

फ्लाई शटल

रस्सी और पुलियो के के जरिए चलने वाला एक यांत्रिक औजार है जिसका बुनाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

वस्तुओं के लिए बाज़ार

ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उत्पादक कई तरीके अपनाते थे। विज्ञापन एक मान्य तरीका होता है जो ग्राहकों को प्रभावित करने में मदद करता है।

मैनचेस्टर के उत्पादक अपने उत्पादों पर लेबल चिपकाकर उनकी पहचान दिखाते थे। उनके लेबल पर ‘मेड इन मैनचेस्टर’ लिखकर वे अपने उत्पादों की गुणवत्ता को प्रमाणित करते थे। इन लेबलों पर सुंदर चित्र भी होते थे, जिनमें अक्सर भारतीय देवी-देवताओं की तस्वीर होती थी। यह स्थानीय लोगों के साथ संबंध बनाने का एक अच्छा तरीका होता था।

उत्पादकों ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक अपने उत्पादों को प्रसिद्ध करने के लिए कैलेंडर बांटना शुरू किया था। किसी अखबार या पत्रिका के मुकाबले कैलेंडर की उपयोगिता लंबी होती है। यह पूरे साल तक ब्रांड का याद दिलाने का कार्य करता था।

भारतीय उत्पादक अपने विज्ञापनों में अक्सर राष्ट्रवादी संदेशों को महत्व देते थे ताकि वे अपने ग्राहकों से धेरे संवादित रूप से जुड़ सकें। उनके उत्पादों के माध्यम से।

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