कक्षा 10 अर्थशास्त्र अध्याय 5: उपभोक्ता अधिकार नोट्स । Class 10 Economics Chapter 5 Notes in Hindi Pdf Download

कक्षा 10 के अर्थशास्त्र के अध्याय 5 गुप्ता अधिकार में आपका स्वागत है। इस पोस्ट में कक्षा 10 अर्थशास्त्र अध्याय 5: उपभोक्ता अधिकार नोट्स (Class 10 Economics Chapter 5 Notes) दिए गए हैं। जो कक्षा 10 के सभी छात्रों के एग्जाम के लिए काफी महत्वपूर्ण है। यह नोट्स कक्षा 10 के छात्रों के लिए रामबाण साबित होंगे। 

उपभोक्ता

वे लोग जो अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताओं के लिए बाजार से विभिन्न चीजें खरीदते हैं, उन्हें ‘उपभोक्ता’ कहा जाता है। उपभोक्ता वह व्यक्ति होता है जो विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं का उपयोग करता है या उनका उपभोग करता है। इन वस्तुओं में खाद्य वस्तुएं (जैसे गेहूं, आटा, नमक, चीनी, फल आदि) और स्थायी वस्तुएं (जैसे टेलीविजन, रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, मिक्सर, साइकिल आदि) शामिल होती हैं। वे सेवाएं जिनका हम खरीदते हैं, उनमें बिजली, टेलीफोन, परिवहन सेवाएं, थिएटर सेवाएं आदि शामिल होती हैं।

ध्यान देने योग्य बात है कि उपभोक्ता वह होता है जो वस्तुओं और सेवाओं का खरीदारी करता है उन्हें उपभोग करने के लिए। यदि कोई दुकानदार थोक विक्रेता से वस्तुएं (जैसे स्टेशनरी का सामानद) खरीदता है, तो वह उपभोक्ता नहीं होता क्योंकि वह उन वस्तुओं को फिर से बेचने के लिए खरीद रहा होता है।

 उपभोक्ताओं के अधिकार

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी चीज़ या सेवा को खरीदकर अपने उपयोग के लिए इस्तेमाल करता है, तो वह उपभोक्ता कहलाता है। इसी तरह, विक्रेता की अनुमति से उस सामान या सेवा का उपयोग करने वाला व्यक्ति भी उपभोक्ता ही माना जाता है। अतः हम सभी लोग किसी न किसी तरह से उपभोक्ता ही हैं।

उपभोक्ता के अधिकार

 आपको वह उत्पाद और सेवाएं से संबंधित अधिकारों के बारे में बता रहा हूँ जो आपकी जिंदगी और संपत्ति को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

आपका उत्पाद और सेवाओं के साथ संबंधित यह अधिकार होता है कि आप उनकी गुणवत्ता, मात्रा, प्रभाव, शुद्धता, मानक और मूल्य के बारे में जानें। इससे आपको अनुचित व्यापार प्रथाओं से बचाया जा सकता है।

जहां भी संभव हो, आपको विभिन्न उत्पादों और सेवाओं के प्रतिस्पर्धी मूल्यों पर पहुंच के लिए इस अधिकार का आश्वासन होता है।

आपको अपने हितों को उचित मंचों पर सुनाने और इस आश्वासन को प्राप्त करने का अधिकार होता है कि आपकी शिकायतें और आपकी हितों को उचित तरीके से सुना जाए।

इसके अलावा, आपको निम्नलिखित अधिकार भी होते हैं:

– अनुचित या प्रतिबंधित व्यापार प्रथाओं के खिलाफ सुनवाई का अधिकार।

– उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार।

उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा के लिए कानून द्वारा दिए गए अधिकार जैसे:- 

  • सुरक्षा का अधिकार 
  • चुनने का अधिकार
  • सूचना का अधिकार
  •  उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार 
  • क्षतिपूर्ति निवारण का अधिकार

उपभोक्ता अधिकार सरंक्षण के कुछ कानून

उपभोक्ता के साथ ही कई विभिन्न संगठन और सरकारी इकाइयाँ, जैसे स्वतंत्र उपभोक्ता संगठन, केंद्र सरकार और राज्य सरकार, एक या एक से अधिक उपभोक्ताओं के मामलों को निपटा सकती हैं। यहां कुछ ऐसे अधिनियम और नियम हैं जिनके माध्यम से उपभोक्ता की कार्यवाही की जा सकती है:

1. भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम 1885: इस अधिनियम के माध्यम से, टेलीग्राफ सेवा संबंधी मुद्दों को संचालित किया जाता है।

2. पोस्ट आफिस अधिनियम 1898: इस अधिनियम के द्वारा पोस्ट ऑफिस मामलों, डाकिंची सेवा और अन्य संबंधित मुद्दों को निपटाया जाता है।

3. भारतीय वस्तु विक्रय अधिनियम 1930: इस अधिनियम के तहत, उपभोक्ता/सिविल न्यायालय में वस्तुओं की खरीद-बिक्री संबंधी मामलों का समाधान किया जाता है।

4. कृषि एवं विपणन निदेशालय भारत सरकार के कृषि उत्पाद से संबंधित मामलों को निपटाता है।

5. ड्रग्स नियंत्रण प्रशासन एमआरटीपी आयोग: यह अधिनियम ड्रग और तत्पर दवाओं से संबंधित मामलों को नियंत्रित करने के लिए उपयोगी होता है।

6. ड्रग एण्ड कास्मोटिक अधिनियम 1940: यह अधिनियम राष्ट्रीय स्तर पर औषधियों के उत्पादन, वितरण, निर्यात और निर्धारण से संबंधित मामलों को व्यवस्थित करने के लिए उपयोगी है।

7. मोनापालीज एण्ड रेस्ट्रेक्टिव ट्रेड प्रेक्टिसेज अधिनियम 1969: इस अधिनियम के द्वारा उपभोक्ता को मोनापालीज (आपत्तिजनक) व्यापार और विपणन से संबंधित मामलों के खिलाफ सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार होता है।

8. प्राइज चिट एण्ड मनी सर्कुलेशन स्कीम्स (बैनिंग) अधिनियम 1970: यह अधिनियम धोखाधड़ी और प्राइज चिट स्कीम के खिलाफ उपभोक्ता की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए है।

9. भारतीय मानक संस्थान (प्रमाण पत्र) अधिनियम 1952: यह अधिनियम उपभोक्ता को मानक संस्थान द्वारा जारी किए गए प्रमाण पत्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए है।

10. खाद्य पदार्थ मिलावट रोधी अधिनियम 1954: इस अधिनियम के माध्यम से उपभोक्ता को खाद्य पदार्थों में मिलावट और अस्वास्थ्यकर तत्वों के खिलाफ सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार होता है।

11. जीवन बीमा अधिनियम 1956: इस अधिनियम के अंतर्गत, जीवन बीमा से संबंधित मुद्दों को नियंत्रित किया जाता है और उपभोक्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है

12. ट्रेड एण्ड मर्केन्डाइज मार्क्स अधिनियम 1958: यह अधिनियम व्यापारी और उपभोक्ता को व्यापार चिह्नों और ट्रेडमार्क्स की सुरक्षा प्रदान करने के लिए 

13. हायर परचेज अधिनियम 1972: यह अधिनियम उपभोक्ताओं को हायर परचेज से संबंधित मुद्दों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है

14. चिट फण्ड अधिनियम 1982: यह अधिनियम उपभोक्ता को चिट फंड स्कीमों से संबंधित धोखाधड़ी और अपराधों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता 

15. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम: यह अधिनियम उपभोक्ता की सुरक्षा और हितों की रक्षा के लिए बन है, एक अधिनियम है जिसके तहत उपभोक्ताओं के हितों की संरक्षा की जाती है।

– रेलवे अधिनियम – 1982: यह अधिनियम रेलवे सेवाओं को संचालित करने और नियंत्रित करने के लिए बनाया गया है।

– इंफार्मेषन एंड टेक्नोलोजी अधिनियम-2000: यह अधिनियम सूचना और तकनीक के क्षेत्र में संचार और सुरक्षा को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया है।

– विद्युत तार केबल्स उपकरण एवं एसेसरीज (गुणवत्ता नियंत्रण) अधिनियम-1993: इस अधिनियम में विद्युत तार, केबल, और संबंधित उपकरणों की गुणवत्ता और निरीक्षण के लिए नियम बनाए गए हैं।

– भारतीय विद्युत अधिनियम-2003: यह अधिनियम भारतीय विद्युत क्षेत्र में वित्तीय प्रबंधन, नियामक प्रक्रियाओं, और आपूर्ति को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया है।

– ड्रग निरीक्षक- उपभोक्ता-सिविल अदालत से संबंधित द ड्रग एण्ड मैजिक रेमिडीज अधिनियम-1954: इस अधिनियम में नशीली दवाओं और जादूगरी उत्पादों को नियंत्रित करने के लिए ड्रग निरीक्षणकर्ताओं और उपभोक्ताओं के संबंध में न्यायिक प्रक्रियाओं के बारे में विवरण दिए गए हैं।

– खाद्य एवं आपूर्ति से संबंधित आवश्यक वस्तु अधिनियम-1955: इस अधिनियम में खाद्य और आपूर्ति के क्षेत्र में आवश्यक वस्तुओं के मानकों और नियंत्रण के बारे में निर्धारण और नियम बनाए गए हैं।

– द स्टेंडर्डस ऑफ वेट एण्ड मेजर्स (पैकेज्ड कमोडिटी रूल्स) – 1977: इस अधिनियम में पैकेजड कमोडिटीज़ (बंद और बन्द न होने वाले वस्त्र, आहार, और अन्य वस्तुओं) के मानकों और नियंत्रण के बारे में निर्धारण और नियम बनाए गए हैं।

– द स्टैंडर्ड ऑफ वेट एण्ड मेजर्स (इंफोर्समेंट अधिनियम-1985: इस अधिनियम में मानक वजन और माप के निर्धारण के लिए प्रावधान और उनके पालन की प्रक्रिया के बारे में नियम और नियंत्रण विधियों के बारे में विवरण दिए गए हैं।

– द प्रिवेंशन ऑफ ब्लैक मार्केटिंग एण्ड मेंटीनेंस आफैं सप्लाइज इसेंशियल कमोडिटीज़ एक्ट-1980: यह अधिनियम अनियमित तरीके से विक्रय या रखरखाव द्वारा मूल्य बढ़ाने वाले आवश्यक वस्तुओं के ब्लैक मार्केटिंग और उसकी नियंत्रण और प्रतिबंधित करने के लिए बनाया गया है।

– राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड / केंद्र सरकार से संबंधित जल (संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम 1976: यह अधिनियम जल संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण को नियमित करने के लिए बनाया गया है और इसके तहत राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और केंद्र सरकार को अधिकार प्राप्त होता है।

– वायु (संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम-1981: यह अधिनियम वायु प्रदूषण और संरक्षण को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया है और वायु प्रदूषण और उसकी नियंत्रण प्रक्रियाओं के बारे में विवरण प्रदान करता है।

– भारतीय मानक ब्यूरो-सिविल/उपभोक्ता न्यायालय से संबंधित घरेलू व िद्युत उपकरण (गुणवत्ता नियंत्रण) आदेश 1981: यह आदेश घरेलू विद्युत उपकरणों की गुणवत्ता नियंत्रण प्रक्रिया और विवरण के बारे में है, जिसका मानदंडीकरण भारतीय मानक ब्यूरो और सिविल/उपभोक्ता न्यायालय के माध्यम से किया जाता है।

– भारतीय मानक ब्यूरो से संबंधित भारतीय मानक ब्यूरो अधिनियम 1986: इस अधिनियम में भारतीय मानक ब्यूरो की स्थापना, कार्यकारी प्राधिकार, और उसकी भूमिका के बारे में विवरण प्रदान किया गया है।

– उपभोक्ता न्यायालय से संबंधित उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम: इस अधिनियम में उपभोक्ताओं के हितों की संरक्षा और न्यायिक प्रक्रियाओं के बारे में विवरण दिए गए हैं।

– पर्यावरण मंत्रालय-राज्य व केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड से संबंधित पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-1986: यह अधिनियम पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण के लिए बनाया गया है। इसके तहत पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, और अनुपालन के मामलों में नियमित कार्रवाई की जाती है।

उपभोक्ताओं के शोषण के कारण

सीमित सूचना

सीमित आपूर्ति 

सीमित प्रतिस्पर्धा

साक्षरता कम होना 

भारत में उपभोक्ता आंदोलन

उपभोक्ता आंदोलन उपभोक्ता आंदोलन के बारे में है, जो विक्रेताओं और दुकानदारों द्वारा अनैतिक और ग़ैरमायनसब कार्यों और हथकण्डों के ख़िलाफ शुरू होता है। लोग कैसे और कितने दिनों तक इसे सह सकते थे की व्यापारी और दुकानदार लोग उन्हें ठग सकते हैं या उनके साथ न्यायाधीशी और ग़ैरन्यायाधीशी तरीक़े से व्यवहार कर सकते हैं।

• भारतीय व्यापारियों के बीच मिलावट, कालाबाजारी, जमाखोरी, कम वजन आदि ऐसी बुरी प्रथा बहुत पुरानी है। 

भारत में उपभोक्ता आंदोलन 1960 के दशक में शुरू हुआ था। 1970 के दशक तक ऐसे आंदोलन सिर्फ़ अख़बारों में लिखे लेख और प्रदर्शनी तक ही सीमित थे। लेकिन हाल के वर्षों में यह आंदोलन तेज़ी से बढ़ा है।

• लोग विक्रेताओं और सेवा प्रदाताओं से बहुत असंतुष्ट हो गए थे, इतनी असंतोषप्रदता थी कि उनके पास इसके अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं बचा था।

एक लंबे संघर्ष के बाद सरकार ने भी उपभोक्ताओं की बात सुनी। इसके परिणामस्वरूप, 1986 में सरकार ने कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट (कोपटा) को लागू किया। इस ऐक्ट के तहत, उपभोक्ताओं की सुरक्षा और हक़ बढ़ाने के लिए कई प्रावधान हैं। इसके ज़रिए, उपभोक्ताओं को धोखाधड़ी, कम गुणवत्ता वाले सामान, भ्रष्टाचार आदि से बचाने का प्रयास किया जाता है।

कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट के तहत, उपभोक्ताओं के लिए न्यायालयों की व्यवस्था भी है, जहां वे अपनी शिकायतों को पेश कर सकते हैं। ऐसे न्यायालयों में न्यायाधीश उनकी सुनवाई करते हैं और उचित निर्णय देते हैं।

उपभोक्ता सुरक्षा अधिनियम 1986 (कोपरा) उपभोक्ताओं को अपने अधिकारों की रक्षा करने का महत्वपूर्ण माध्यम है।

उपभोक्ता संरक्षण

• उपभोक्ता संरक्षण एक प्रकार का सरकारी नियंत्रण है जो उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करता है। 

 परिचय

आजकल बहुत सारे ग्राहकों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। ये समस्याएं जैसे जमाखोरी, कालाबाजारी, मिलावट, बिना मानक की वस्तुओं की बिक्री, अधिक दाम, गारंटी के बाद सर्विस नहीं देना, हर जगह ठगी, कम नाप-तोल और इसी तरह के संकटों से जुड़ी होती हैं। ग्राहक संरक्षण के लिए कई कानून बने हैं, लेकिन ग्राहक आज सरकार पर निर्भर हो गए हैं। जो लोग गैरकानूनी काम करते हैं, जैसे जमाखोरी, कालाबाजारी करने वाले, मिलावटखोर और अन्य, उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिलता है। यह इसलिए होता है क्योंकि ग्राहक संगठित नहीं होते हैं, इसलिए उन्हें हर जगह ठगा जाता है। इसीलिए ग्राहकों को सतर्क रहना चाहिए और अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।

भारत में उपभोक्ता संरक्षण

उपभोक्ता आन्दोलन के दौरान 1966 में जेआरडी टाटा और कुछ अन्य उद्योगपतियों ने मुंबई में एक संगठन बनाया जिसका नाम फेयर प्रैक्टिस एसोसिएशन था। इस संगठन की शाखाएं अन्य प्रमुख शहरों में भी खोली गईं। इसके बाद, 1974 में पुणे में बीएम जोशी ने ग्राहक पंचायत की एक स्वयंसेवी संगठन की स्थापना की। विभिन्न राज्यों में भी उपभोक्ता कल्याण के लिए संगठनों की स्थापना हुई। इस प्रकार, उपभोक्ता आन्दोलन तेजी से बढ़ा। 24 दिसम्बर 1986 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के प्रयासों के बाद, संसद ने उपभोक्ता संरक्षण विधेयक को मंजूरी दी और इसे राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत करवाने के बाद यह अधिनियम देशभर में लागू हुआ। बाद में, 1993 और 2002 में इस अधिनियम में महत्वपूर्ण संशोधन किए गए। इन व्यापक संशोधनों के बाद, यह एक सरल और सुगम अधिनियम बन गया। अधिनियम के तहत जोगवाई न करने पर धारा 27 के अंतर्गत कारावास और दण्ड का प्रावधान किया गया है। इस अधिनियम के तहत बनाए गए आदेशों का पालन नहीं किया जाने पर धारा 25 के तहत करावास की सजा दी जा सकती है।

इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा करना है। इसके तहत, कोपरा के अंतर्गत उपभोक्ता विवादों के निपटारे के लिए एक त्रिस्तरीय न्यायिक प्रणाली को स्थापित किया गया है। इस प्रणाली में, जिला स्तर पर 20 लाख रुपये तक के मामले, राज्य स्तर पर 20 लाख से 1 करोड़ रुपये तक के मामले और राष्ट्रीय स्तर पर 1 करोड़ रुपये से ऊपर के मामलों का परिचालन होता है। इन न्यायालयों में उपभोक्ता संबंधित मुकदमों की सुनवाई की जाती है।

उपभोक्ताओं के कर्त्तव्य

  • जब भी आप कोई सामान खरीदने जाते हैं, तो आपको उपभोक्ताओं की गुणवत्ता को ध्यान से देखना चाहिए।
  • जहां भी संभव हो, आपको गारंटी कार्ड जरूर लेना चाहिए।
  • खरीदे गए सामान और सेवा की रसीद जरूर लेनी चाहिए।
  • अपनी वास्तविक समस्या की शिकायत जरूर करें।
  • आपको आईएसआई और एगमार्क निशान वाले सामान ही खरीदने चाहिए।
  • अपने अधिकारों की जानकारी होना चाहिए।
  • जब आवश्यकता हो, तो आपको उन अधिकारों का उपयोग करना चाहिए।

राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस

24 दिसंबर को राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह वही दिन है जब भारतीय संसद ने कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट लागू किया था। भारत उन गिने चुने देशों में से है जहाँ उपभोक्ता की सुनवाई के लिए अलग से कोर्ट हैं।

आज देश में 2000 से अधिक उपभोक्ता संगठन हैं, जिनमें से केवल 50-60 ही अपने कार्यों के लिए पूरी तरह संगठित और मान्यता प्राप्त हैं।

लेकिन उपभोक्ता की सुनवाई की प्रक्रिया जटिल, महंगी और लंबी होती जा रही है। वकीलों की महंगी फीस के कारण अक्सर उपभोक्ता मुकदमे लड़ने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता है।

उपभोक्ता निवारण प्रक्रिया की सीमाएँ

  • उपभोक्ता निवारण प्रक्रिया काफी जटिल, महंगी और समय लेने वाली हो रही है। 
  • अक्सर उपभोक्ताओं को वकीलों की मदद लेनी पड़ती है।
  • ये मामले अदालती कार्यवाहियों में शामिल होने और आगे बढ़ने में काफी समय लेते हैं।
  • बहुत सारे ग्राहकों को समय पर रसीद नहीं मिलती है। इस तरह की स्थिति में प्रमाण जुटाना आसान नहीं होता है।
  • बाजार में अधिकांश खरीदार छोटे दुकानों से ही सामान खरीदते हैं।
  • श्रमिकों के हकों की सुरक्षा के बावजूद, खासकर असंगठित क्षेत्र में यह कमजोर है।
  • इस तरह बाजारों में नियमों और विनियमों का प्रायः पालन नहीं होता।

भारत सरकार द्वारा उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए उठाए गए कदम 

  • कानूनी कदम:- 1986 का उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम
  • प्रशासनिक कदम:- सार्वजनिक वितरण प्रणाली
  • तकनीकी कदम:- वस्तुओं का मानकीकरण सूचना का अधिकार अधिनियम (2005 )
  • त्रिस्तरीय उपभोक्ता अदालतों की स्थापना ।

उपभोक्ता संरक्षण परिषद् और उपभोक्ता अदालत में अंतर

उपभोक्ता संरक्षण परिषद् – यह संगठन उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने और उन्हें मार्गदर्शन करने का कार्य करता है, जिससे वे अपने हक़ को अदालत में मुकदमा दर्ज करवा सकें। 

उपभोक्ता अदालत – यहां लोग उपभोक्ता अदालत में न्याय पाने के लिए जाते हैं। यहां दोषी को दण्ड दिया जाता है और उन पर जुर्माना लगाया जाता है या सजा दी जाती है।

आर टी आई सूचना का अधिकार

सन् 2005 के अक्टूबर में भारत सरकार ने एक कानून लागू किया था जिसे हम “आर टी आई” या “सूचना पाने का अधिकार” के नाम से जानते हैं। इस कानून के तहत, हर नागरिक को सरकारी विभागों के कार्यक्रमों की सभी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार होता है। इसका मतलब है कि आप सरकारी विभागों की गतिविधियों के बारे में सभी सूचनाएं प्राप्त कर सकते हैं।

न्याय पाने के लिए उपभोक्ता को कहाँ जाना चाहिए? 

यदि आपको न्याय प्राप्त करना है, तो आपको उपभोक्ता अदालत में जाना चाहिए।

कोपरा (उपभोक्ता) के मामलों के निपटारे के लिए एक त्रिस्तरीय न्यायिक तंत्र स्थापित किया गया है, जिसमें जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर के अदालतें शामिल हैं।

जिला स्तर के न्यायालय में 20 लाख रुपये तक के मामलों पर विचार किया जाता है। यानी अगर मामला 20 लाख रुपये या उससे कम का है, तो यहाँ पर अपनी मांग रख सकते हैं।

राज्य स्तरीय अदालतें 20 लाख रुपये से एक करोड़ रुपये तक के मामलों के परिचार करती हैं। अर्थात यदि आपका मामला 20 लाख रुपये से ज्यादा और एक करोड़ रुपये से कम का है, तो आपको राज्य स्तरीय अदालत में जाना चाहिए।

राष्ट्रीय स्तर की अदालतें 1 करोड़ रुपये से ज्यादा के मामलों को सुनती हैं। अगर आपकी मांग 1 करोड़ रुपये से ऊपर की है, तो आपको राष्ट्रीय स्तर की अदालत में आपील करनी चाहिए।

Leave a Comment